अब मैं मम मन्दिर में रहूँगा
अमिट, अमित अरु अतुल, अतीन्द्रिय,
अरहन्त पद को धरूँगा
सज, धज निजको दश धर्मों से -
सविनय सहजता भजूँगा ।। अब मैं ।।
विषय - विषम - विष को जकर उस -
समरस पान मैं करूँगा।
जनम, मरण अरु जरा जनित दुख -
फिर क्यों वृथा मैं सहूँगा? ।। अब मैं । ।
दुख दात्री है इसीलिए अब -
न माया - गणिका रखूँगा।।
निसंग बनकर शिवांगना संग -
सानन्द चिर मैं रहूँगा ।।अब मैं । ।
भूला, परमें फूला, झूला -
भावी भूल ना करूँगा।
निजमें निजका अहो! निरन्तर -
निरंजन स्वरूप लखूँगा ।। अब मैं । ।
समय, समय पर समयसार मय -
मम आतम को प्रनमुँगा।
साहुकार जब मैं हूँ, फिर क्यों -
सेवक का कार्य करूँगा ? ।।अब मैं । ।
***महाकवि आचार्य विद्यासागर***