Thursday, 6 February 2014

मौत का दामन थामा

मौत का दामन थामा

खुशियों के माहौल में जन्मा 
हर कोई मुझे खिलाया
सबकी चाहत बन जाता 
कभी रोता तो कभी हस्ता
फिर उसी में रम जाता
माँ कि लोरिया सुनते
मेरा बचपन यु ही गुजर जाता
जब से जन्मा
तब से मैंने मौत का दामन थामा

गर्व से इठलाता, यौवन पर
न जाने समझता समझदार
चंद रुपयों की चाह में
ईमान लगाता दाँव पर 
यहाँ रिश्ते बनते बिगड़ते है
फस गया रिश्तों के जाल में
आख मिचौली करता, खुद से
उलझ कर रह गया माया जाल में
यह जवानी बीती जाती
जब से जन्मा
तब से मेने मौत का दामन थामा

हाथ जोड़, में खड़ा शांत मन से
जीवन बीत रहा है यादों से
धुंधली है यादें
मस्तिष्क थक चुका 
कमर झुक गई है
बुढ़ापा खड़ा सामने
यही लाचारी, यही नियति है
मनो माहौल बदल सा गया है
जब में जन्मा
तब से मेने मौत का दामन थामा

मैं क्यों भूल जाता
में जन्मा, बिछड़ ने के लिए
ये रिश्ते नाते छलावा है
न शरीर तुम्हारा, न तुम शरीर के
में क्यों नहीं समझता    
मौत सत्य है जीवन का 
जब से में जन्मा
तब से मेने मौत का दामन थामा


एक सत्य है इसके अलावा 
में सिर्फ और सिर्फ आत्मा हु 
मे भिन्न हु जन्म मरण से 
मे आत्मा मात्र आत्मा हु
और कुछ नहीं...........
और कुछ नहीं...........

Friday, 17 January 2014

क्यों आज मेरा मन उदास है?



क्यों आज मेरा मन उदास है?

क्यों आज मेरा मन उदास है?
नहीं जानता में
क्या कहु ?
किससे कहूँ?

में घिरा हु अपनो से
फिर भी में अकेला हु
जाने क्यों
कैसे में प्यासा भुजाउ
इस विचलित मन से 
इस सूनेपन से
घबराहट सी है मन में 
जाने क्यों
में कमजोर पढ़ गया हु
जैसे अपनी ही नाकामियों से
क्यों दोष देता हु?
क्यों कोसता हु तकदीर को ?
क्यों पाता अकेला खुद से ?
जाने क्यों
सुख कि चाहत है
दुःख से में अनजान हु
फस गया जैसे सुःख-दुःख के भवर में
जाने क्यों
फेला है सपनो का माया जाल
रोज सजते है सपने इन आखो में
कुछ सपने मुकाम पाते है
तो कुछ दम तोड़ देते है 
जाने क्यों
आज मेरा मन उदास है

कब उभरेंगे इस उदास मन से
और कब समलैंगे
क्यों नहीं हम समझ पाते
जिंदगी बहुत छोटी है
वक्त बहुत कम है
मौत सामने खड़ी है
करलो कुछ उद्धार खुद का
न मालूम यह पंछी कब उड़ जायेगा
जाने क्यों
मेरा मन उदास है

Sunday, 3 November 2013

दीप का उजाला



दीप का उजाला

एक छोटा सा दीप 
छोटी सी बाती घी से लतपत
मानो जब भी जले
कर देता उजाला जीवन में
उसकी मंद रोशनी
ना जाने क्यों झिलमिलाती है
शांत हो जाता है मन हमारा
दिल को सुकून सा मिल जाता है

ये माटी का दीप
इसकी रचना है कोमल   
जिसके सौन्दर्य को देख
आखों में उजाला आजाता
न मालूम ये है कितना प्राकृतिक
न मालूम ये है कितना धीर
किन्तु यह हमारा मन मोह लेता है

दीप कि लो
पटाखों के जबरजस्त शोर में
हवा के झोके में भी
नहीं डग मगता है
अनार की रोशनी में
भी जरा नहीं सहमता
थोड़ा-सा झुकता है
और फिर तैयार हो जाता है
जगमगाने के लिए
स्नेहदीप के साथ ये
हमारे जीवन को रोशन करता है
मुबारक हो दीपावली का त्यौहार।

Wednesday, 30 October 2013

हाथ से फिसल रहा है वक्त



हाथ से फिसल रहा है वक्त
जन्म से लेकर अब तक
न मालूम क्या-क्या पाया  
जब-जब सोचु में    
कई सवालो से घिरा पाया 
कई यो के जवाब पालिये  
कई सवाल नासूर बन गए   
कई के जवाब का इंतजार 
जब पन्ने पलता हूँ जिंदगी के 

जन्म से लेकर अब तक
न मालुम जिंदगी से मेने क्या पाया  
जब जब में सोचता हु अपने बारे में
कई सवाल है मेरे मन में
जिसका जवाब आज तक नहीं मिला
जब पन्ने पलट कर देखता हु
एक बार फिर से जिंदगी के
तो लगता है फिसल चूका है वक्त

बचपन गुजर चूका है
कभी खेल में तो कभी मस्ती में
कभी लड़ने में तो कभी मनाने में
कभी सोने में तो कभी जागने में
कभी लम्बी दौड़ में
तो कभी इछाओ को पुरा कर ने में
कभी ख़ुशी में तो कभी गम में
न मालूम इन सब में बचपन हाथ से निकल गया
हमारा वक्त हाथ से निकल गया

जवानी आई और आदि गुजर गई
कभी कमाने में तो कभी सेटल करने में  
कभी पाने में तो कभी खोने में
कभी न समजा में
कभी रिश्ते को बुनने में
तो कभी रिश्ते को निभाने में
न मालूम यह वक्त कहा निकल गया

इस भागती दौड़ में
क्यों बिखर गई यादे 
क्यों फिसल रहा है वक्त
क्यों दूर हो रहे है अपनों से
क्यों कर रहे है बार बार वही गलती
ना जानते है, ना जान सकते है
लाख कोशिश के बाउजूद
हम वक्त को रोक नहीं पाये
जैसे मुटी में रखी रेत के समान है वक्त
जो हाथ से फिसल जाता है
उसी तरह जिंदगी भीकर जाती है
में फिरसे अकेला हो जाता हु
और वक्त कहा निकल जाता है

एक नए सफ़र कि तलाश में
नए सपनो को बुनने का वक्त आगया है
फिर से नई आशाए जगानी है मन में
नए विशवास के साथ
हमें धन्यवाद देना है वक्त को
जिसने मेरा इतना साथ दिया
कुछ खट्टी मीठी यादों में 
कई खवाइश है दिल में
उनको पूरा कर ने का वक्त आगया है
आशा करता हु सपने होंगे पुरे
और इसी तरह यह वक्त भी गुजर जायेगा

Tuesday, 29 October 2013

कहाँ आ गए हैं

मत छीनो ये बचपन
न मालूम कब बीत जायेगा
भूल गए है खेलकूद
न मालूम कब खेल पायेगा
फस गया है इछाओ के भवर में
न मालूम कब निकल पायेगा  
मत थोपो हसरते उनके कंधो पर
थक गया है यह बचपन
न मालूम कब सम्भलपायेगा
यदि ये बचपन बिगड़ गया
न मालूम कब सवर पायेगा 
कहा चला गया है बचपन
कहाँ आ गए हैं

यह युग है टेक्नोलॉजी का
इन्टरनेट ने किया अचंभित
मच गया कोहराम
बच्चे-युवा हुए दीवाने
ये आगाज है नए विश्व का
बन गए है गुलाम
वे अनजान है इस विश्व से 
न जाने कब से
रोक लो उन्हें 
थामलो उनका हाथ
ये इंटरनेट कहीं ले न डूबे...!
कहाँ आ गए हैं



क्यों भूल गया रिश्ते-नाते
न मालूम कब समझेगा
क्यों भाग रहा है पैसे के पीछे
न मालूम इस अंधी दौड़ मे
बीत गई ज़िंदगी कमाने में
न आएगा पैसा काम
अभी भी वक्त है तू समलजा
कही ये तुझे निगल ना जाये
कहाँ आ गए हैं

निकले है सफ़र पर कब से
ना मंजिल का ना घर का पता है
न मालूम यह सफर कब थमेगा
क्यों भाग रहा है बंद आखो से
क्यों है विश्वास स्वयं पर
क्यों भुल जाता है स्व को  
न मालूम कब जान पायेगा
भय है जैसे मौत का
न मालूम कब थम जाये
कहाँ से सफ़र शरू हुआ था
कहाँ आ गए हैं

Jinshaasanashtak ("जिनशासनाष्टक")

  "जिनशासनाष्टक" रत्नात्रयमय जिनशासन ही महावीर का शासन है। क्या चिंता अध्रुव की तुझको, ध्रुव तेरा सिंहासन है ।।टेक॥ द्रव्यदृष्टि स...