आत्मानुभवसे नियमसे होती
सकल करम निर्जरा
दुखकी शृंखला मिटे भव फेरी
मिट जाय जनन जरा
परमें सुख कहीं है नहीं जगमें
सुखतो निज में भरा
मद ममतादि तज धार शम, दम, यम
मिले शिव सौख्यखरा
यदि भव परम्परा से हुआ घबरा
तज देह नेह बुरा
तज विषमता झट, भज सहजता तू
मिल जाय मोक्ष पुरा
देह त्यों बंधन इस जीवको ज्यों
तोते को पिंजरा
बिन ज्ञान निशिदिन तन धार भव, वन
तू कई बार मरा
भटक, भटक जिया सुख हेतु भवमें
दुख सहता मर्मरा
चम चम चमकता निजातम हीरा
काय काच कचरा
***महाकवि आचार्य विद्यासागर***
भटकन तब तक भव में जारी
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