Wednesday, 24 February 2021

samakit laabh

समकित लाभ

 


सत्य अहिंसा जहाँ लस रही, मृषा, हिंसा को स्थान नहीं।

मधुर रसमय जीवन वही, फिर स्वर्ग मोक्ष तो यही मही ।।

 

कितनी पर हत्या हो रही, गायें कितनी रे! कट रहीं ।  

तभी तो अरे! भारत मही, म्लेच्छ खण्ड होती जा रही ।।

 

लालच-लता लसित लहलहा, मनुज-विटप से लिपटी अहा।

भयंकर कर्म यहाँ से हो रहा, मानव दानव है बन रहा ।।

 

केवल धुन लगी धन, धन, धन, चाहे कि धनिक हो या निर्धन ।

लिखते लेकिन वे साधु जन, वह धन तो केवल पुद्गल कण।।

 

एकता नहीं मात्सर्य भाव, जग में है प्रेम का अभाव  ।

प्रसारित जहाँ तामस भाव, घर किया इनमें मनमुटाव ।।

 

याचना जिनका मुख्य काम, बिना परिश्रम चाहते दाम ।

सत्पुरुष कहें वे श्रीराम, पुरुषार्थो को मिले आराम ।।

 

कहाँ तक कहें यह कहानी, कहते कहते थकती वाणी ।

रह गई दूर वीर वाणी, विस्मरित हुई, हुई पुराणी।।

 

रसातल जा मत दुःख भोगो, मुधा पाप बीज मत बोओ।

हाय! अवसर वृथा मत खोओ, मोह नींद में कब तक सोओ ।।

 

युगवीर का यही सन्देश, कभी किसी से करो न द्वेष ।

गरीब हो या धनी नरेश, नीच उच्च का अन्तर न लेष ।।

 

वीर नर तो वही कहाता, कदापि पर को नहीं सताता ।

रहता भूखा खुद न खाता, भूखे को रोटी खिलाता ।।

 

क्लव यह, करे सद् “विद्याभ्यास” रहे वीर चरणों में खास ।

बस मुक्ति रमा आये पास, प्रेम करेगी हास विलास।।

 

- महाकवि आचार्य विद्यासागर

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