सुधी कहे फिरभी विनश्वर जड़काय ।
करे परिणमन जब निज भावों से सब,
देह नश रहा अब मम मरण कहाँ कब? ।।
तव न ये, सर्वथा भिन्न देह अम्बर,
पर भाव त्याग तू बन शीघ्र दिगम्बर ।।१।।
बन्ध कारण अतः रागादितो हेय,
वह शुद्धात्म ही अधुना उपादेय,
‘मेरा न यह देह” यह तो मात्र ज्ञेय,
ऐसा विचार हो मिले सौख्य अमेय ।
दुख की जड़ आस्रव शिव दाता संवर,
पर - भाव त्याग तू बन शीघ्र दिगम्बर ।।२।।
अब तक पर में ही तू ने सुख माना,
इसलिये भयंकर पड़ा दुख उठाना।
वह ऊँचाई नहीं जहाँ से हो पतन
तथा वह सुख नहीं जहाँ क्लेश चिंतन ।
इक बार तो जिया लख निज के अन्दर,
पर भाव त्याग तू बन शीघ्र दिगम्बर ।।३।।
स्व-पर बोध विन तो! बहुत काल खोया,
हाय! सुख न पाया दुःख बीज बोया ।
"विद्या” आँख खोल समय यह अनमोल,
रह निजमें अडोल अमृत - विष न घोल ।
शुद्धोपयोग ही त्रिभुवन में सुन्दर ।।
पर भाव त्याग तू बन शीघ्र दिगम्बर ।।४ ।।
- महाकवि आचार्य विद्यासागर
अब मैं मम मन्दिर में रहूँगा
भटकन तब तक भव में जारी
चेतन निज को जान जरा