नित निजमें रमण, कर स्वको ही नमन ।
जिया! फिर भव में, नहीं पुनरागमन,
ओ! क्या बताऊं! बस चमन ही चमन ।।
समता - सुधापी, तज मिथ्या परिणति,
बनना चाहता यदि शिवांगना - पति । ।१ ।।
केवल पटादिक वह मूढ़ छोड़ता,
सुधी कषाय - घट, को झटिति तोडता ।।
गिरि - तीर्थ करता वह जिन दर्शनार्थ,
जिनागम जो मुनि पढा नहीं यथार्थ ।।
मद ममतादि तज बन तू निसंग यति,
बनना चाहता यदि शिवांगना - पति ।।२।।
सुख दायिनी है यदि समकित - मणिका,
दुख दायिनी है वह माया - गणिका ।।
पीता न यदि तू निजानुभूति - सुधा,
स्वाध्याय, संयम, तप कर्म भी मुधा ।।
दिनरैन रख तू केवल निज में रति,
बनना चाहता यदि शिवांगना पति ।।३।।
उपादान सदृश होता सदा कार्य,
इस विधि आचार्य बताते अयि! आर्य
‘विद्या’ सुनिर्मल, - निजातम अत:! भज,
परम समाधि में स्थित हो कषाय तज ।।
संयम भावना बढ़ा दिनं प्रति अति,
बनना चाहता यदि शिवांगना पति ।।४।।
- महाकवि आचार्य विद्यासागर
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