मोक्ष - ललना को जिया ! कब बरेगा?
स्वरूप - बोध बिन, सहता दुख निशिदिन,
यदि उसे पाता, तू बन सकता जिन।
नितनिजा - नुमनन कर व्यामोह हनन,
चाहता न मरण यदि न जरा न जनन ।
आशा - गर्त यह कदापि न भरेगा,
मोक्ष - ललना को जिया! कब बरेगा? ।।१।।
सुखदाता नहीं मात्र वस्त्र मुंचन,
दुखहर्ता नहीं मात्र केश लुंचन ।
करे राग द्वेष जो धर नग्न - भेष,
वे अहो जिनेश! पावें न सुख लेश।।
आत्मावलोकन अरे! कब करेगा,
मोक्ष - ललना को जिया ! कब वरेगा? ।।२।।
करता न प्रमाद, नहीं हर्ष विषाद,
लेता वही मुनि, नियम से निज - स्वाद ।
सुमणि तज काच में, क्यों तु नित रमता?
पी मद, अमृत तज, क्यों भव में भ्रमता?
निज - भक्ति - रस कब, तुझ में झरेगा?
मोक्ष - ललना को जिया! कब वरेगा? ।।३।।
तज मूढता त्रय, भज सदा रत्नत्रय,
यदि सुख चाहता, ले ले, झट स्वाश्रय ।
अब ‘‘विद्या" जाग, अरे! शिव - पथलाग,
शीघ्र राग त्याग, बन तू वीतराग ।।
कब तक लोक में, जनम ले मरेगा?
मोक्ष - ललना को जिया कब वरेगा? ।।४।।
- महाकवि आचार्य विद्यासागर