Tuesday, 29 October 2013

कितने खुश, कितने नाखुश?

कितने खुश, कितने नाखुश?

कितने खुश, कितने नाखुश?
जीवन में खुशिया अपना ही रंग दिखाती है
कभी हैं ग़म तो कभी खुशियां
कुछ खुशिया बिना मांगे
तो कुछ ढूंढनी पड़ती है
कुछ का हम इंतजार करते है
तो कुछ समय से पहले ही दम तोड़ देती है
खुशिया पाने की ख्वाहिश हम सब में है
कैसे पहिचाने खुशिया भी है या नहीं

जितना हम जानते है दुनिया को

क्या उतना ही कम जानते है अपने बारे में

परेशानियों के बिच हम घिरे हुए है

नाखुशियो का दामन हमने थामा है


क्यों नाखुश है??

उलझता हुआ सवाल है दिल में

नाखुश है स्वयं से,

क्या समज पाए है खुद को

नाखुश है रिश्ते-नाते से,

क्या समज पाए है रिश्तो को

नाखुश है कामकाज से,

क्या एहसास है काम के उद्देश का

नाखुश है द्रष्टिकोण से,

क्या समज पाए है खुद का नजरिया

नाखुश है जीवन से,

क्यों पसंद है जीवन जैसा भी है

नाखुश है निराशाओ से,

क्यों भुल नहीं पाते है कड़वाहट को

नाखुश है वर्तमान से,

क्या खुशहाली एक रास्ता है मंजिल नहीं

आखिर क्यों हम इतने नाखुश है

यह वक्त है न तो खुशियों को चुनने का

और न खुशियों के पीछे भागने का है

न तो खुशिया बाहर है

न ही यह मंजिल है

बंद करो पीछा करना खुशियों का

पाओ गे तुम स्वयं को खुला

और वर्तमान समय में

सुनो अपनी अंतरात्मा की आवाज

जब तुम अपने को जान लोगे

सारा जीवन मानो खुशहाल सा लगेगा

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